Roza Ki Niyat / Roza Rakhne Ki Niyat / Sahri Ki Niyat
Roza ki Niyat :- वैसे तो नियत दिल के इरादे को कहते है ! मतलब दिल में कोई काम करने का पक्का इरादा करना ही नियत है ! मगर फिर भी इस्लाम में कोई भी काम करने के लिए कुछ कलमे मुक़र्रर किये गए है ! जिन्हे आप जो आप काम शुरू कर रहे है ! उससे पहले या बाद में पढ़ले ! मतलब अपनी ज़ुबान से जो इरादा किया है उसे दोहराले ! तो उसका सवाब ज्यादा मिलता है ! और इसे ही रोज़ा की नियत ( Roza Ki Niyat ) बोला जाता है !
और हमारे खुद के ज़हन को भी सुकून उसी से मिलता है ! इसी तरह रमज़ान में रोज़ा रखने के लिए रोज़ा की नियत ( Roza Ki Niyat ) करना ! इसके लिए भी एक कलमा मुक़र्रर है ! जिसे हम अच्छी इमेज के साथ इसी पोस्ट में बताएँगे ! उससे पहले हम रोज़ा रखने के बातिनी आदाब जान लेते है !
ताकि जब आप रोज़ा रखे तो आपसे कोई भूल ना हो ! आपके रोज़े पूरी तरह मुकम्मल हो ! जो काबिले क़ुबूल हो !
*माहे रमज़ान की सेहरी की दुआ* |
“नियत की मैंने आज के रोज़ा की, बिस्सौमी ग़दिन नवयतु मिन शहरे रमज़ान।” |
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सहरी भी सुन्नते रसूल है
सहरी खाना हुजूर सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम की सुन्नत है । सहरी रोज़ा रखने के वक्त से पहले आखरी वक्त में खाई जाए । नबी करीम सल लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इसकी ताकीद फरमाई है ! जैसा कि हजरत अनस इन्ने मालिक रदियल्लाहो तआला अन्हुमा फरमाते है ! कि रसूले अकरम सल – लल्लाहो अलहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया सहरी किया करो क्योंकि सहरी में बरकत है ।
( बुखारीशरीफ : जि . 1 , स . 257 )
दूसरी हदीस में आकाए नामदार , मदीने के ताजदार सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इस तरह फरमाया कि हमारे और एहले किताब के रोजों के दर्मियान फर्क सहरी खाने में है ।
( अबू दावूद , तिर्मिजी )
एक और हदीस में रसूल सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फरमाया : कि अल्लाह और उसके फरिश्ते सहरी खाने वालों पर दुरूद भेजते हैं ।
इसी तरह अल्लाह के प्यारे हबीब सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया दोपहर को थोडी देर आराम करके कयामुल लैल में सहलत हासिल करो और सहरी खा कर दिन में रोजे के लिए कुव्वत हासिल करो ।
मेरे प्यारे आका सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम के प्यारे दीवानो ! सहरी जरूर खाया करो ! कि इसमें दारैन की भलाई है ! इत्तिबाए सुन्नत भी और रिज्क में इजाफा का सबब भी ।
और आशिके रसूल सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम के लिए इतना बस है ! कि फला काम मेरे नबी सल लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने किया है । रब्बे कदीर हम सबको अपने प्यारे हबीब सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम की प्यारी सुन्नतों पर अमल करने की तौफीक अता फरमाए !
रोज़ा के बातिनी आदाब-Roza Ki Niyat Or Batini Adab
रोज़ा के जाहिरी आदाब तो यही हैं ! कि सुबह सादिक से लेकर गुरूबे आफताब तक खाने पीने और जमअ से रूक जाएं ! लेकिन रोज़ा के कुछ बातिनी आदाब भी है ! जिनका लिहाज अशद जरूरी है । वह यह कि जिस्म के तमाम आज़ा को खिलाफे शरअ बातों के इरतिकाब से बचाया जाए !
जब भी हम सही मानों में रोजो के फवाइद से बेहरावर हो सकते हैं ! और फरमाने बारी तआला के मुजद – ए – जाँफिज़ा से शाद काम हो सकते हैं ! लिहाजा अब जिस्म के आजा के रोजे की तफसील मुलाहिजा करो और अमल की कोशिश करो ।
झूट से बचो
झूठ एक ऐसा गुनाह है कि इस्लाम ही नहीं बल्कि दुनिया के सारे बातिल मजाहिब की नज़र में भी उसे गुनाह तसव्वुर किया जाता है । वैसे तो हमें हर हाल में झूठ से परहेज और माहे रमजान कैसे गुजारे गरेज करना चाहिए ! लेकिन खुसुसी तोर पर माहे है ! रमजानुल मुबारक मेराजे की हालत में हमें झूठ से बचना चाहिए !
क्योंकि अगर हम रोजा रख कर भी झूठ बोलते हैं ! तो गोया हमने रोजा के मकसद को फरामोश कर दिया । जैसा कि नबी करीम सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया : जो शख्स झूठ बोलना और उस पर अमल तर्क न करे तो अल्लाह को कोई जरूरत नहीं कि वह अपने खाने पीने को छोड़ दे ।
( बुखारी शरीफ ज . 1 . स . 255 )
नाजेबा अल्फाज़ भी ज़बान से अदा न हों
मेरे इस्लामी भाईयों : बाज मालिक अपने नौकरों को , अफसर अपने मातहतों को , उस्ताज अपने शागिर्दो को , माँ – बाप अपनी औलाद को , औलाद अपने माँ बाप को बेतकल्लुफ दोस्त अपने दोस्तों को ख्वाह मख्वाह गालियां देने और बुरा भला कहने के आदी होते हैं , हत्ता कि आज के माहोल में उसे बुरा तक तसव्वुर नहीं किया जाता , बाज नोजवानों का तकिया कलाम ही गाली होता है
उनकी हर बात गाली गलोच और नाशइस्ता अलफाज से शुरू होती है । मगर याद रखो ! माहे रमजानुल मुबारक इन चीजों से भी हमें पाक करने के लिए आता है ! जिससे किसी मुसलमान को अदना दरजा की भी तकलीफ हो माहे रमजानुल मुबारक में रोजे की हालत में इन चीजों से परहेज करने की कोशिश करें !
इंशाअल्लाह तआला , उसी की बरकत से हमेशा के लिए इस किस्म के अल्फाज से बचने का जज्बा और जौक दिल में पैदा होगा ।
गीबत से परहेज-Roza Ki Niyat-Roza Me Gibat Se Parhez
रसूले अकरम नूरे मुजस्सम सल लल्लाहो अलैहि वसल्लम के जमाना में दो औरतों ने रोजा रखा ! और ऐसा हुआ कि उन्हें इस कदर प्यास लगी कि जान का खतरा पैदा हो गया ! आखिर रसूले अकरम सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम से रोजा तोड़ने की इजाजत मांगी ! आपने एक प्याला उनके पास भेजा ! और फरमाया कि उन्हें कहो जो कुछ खाया है ! वह इसमें के कर दें !
लिहाजा उनकी के में खून और जमे हुए खून के टूकड़े थे । लोगों को इस पर बेहद ताअज्जुब हुआ ! तो आपने फरमाया : इन दोनों औरतों ने उस चीज़ से सहरी की जिसे अल्लाह ने हलाल किया है ! और फिर उस चीज से तोड़ डाला ! जिसे अल्लाह ने हराम फरमाया है ! यानी गीबत में मशगूल हो गई ।
गीबत ऐसा सख्त तरीन गुनाह है ! कि अल्लाह तबारक व तआला ने इसे ” अपने मुर्दार भाई का गोश्त खाने ” से ताबीर फरमाया है ,
जैसा कि फरमाने यारी तआला और कोई शख्स एक दूसरे की गीबत न करे क्या । तुम में से कोई यह पसंद करेगा कि अपने मुर्दार भाई का गोश्त खाए , वह तो तुम्हें नापसंद है ।
लिहाजा हमें हमेशा और खुसूसन माहे रमजानुल मुबारक में रोजे की हालत में गीबत से बचने की कोशिश करनी चाहिए ।
किसी का दिल न दुखाओ-Ramzan Me Kisi Ka Dil Na Dukhao
रोजा रख कर हमें दिल आजारी से भी परहेज करना चाहिए । दिल आजारी कई तरीकों से होती है , किसी को उलटे सीधे नामों से पुकारना ! किसी का मजाक उड़ाना , किसी पर जुमले कसना , किसी के ऐब के साथ उसे मसूब करना , किसी का कोई सामान इधर – उधर करके सताना वगैरा यह सब दिल आजारी की सूरते हैं ।
रोजा रख कर हमें इन सब चीजों से कोसों दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए । क्योंकि रोजा का एक मकसद ” एक दूसरे की तकालीफ का एहसास ” और ” आपस में प्यार और मुहब्बत पैदा करना है । कॉलेजों , स्कूलों और मदरसों के तलवा और फैक्ट्रीयों में काम करने वाले मजदूरों में यह वबा आम है ! कि वह एक दूसरे का खूब तमस्खुर उडाते हैं ।
इन्हें जानना चाहिए कि वह जो कुछ कर रहे हैं ! वह रोज़ा की रूहानियत के खिलाफ है ।
अल्लाह तआला हम सब को खिलाफे शरअ कामों से बचाए । आमीन ।
कानों की हिफाज़त करो-Ramzan Or Kano Ki Hifajat
यूं तो कानों को हर हाल में बुरी बातों को सुनने से न बचाना लाजिम है ! मगर रोजा की हालत में इसकी तरफ खास तवज्जह देनी चाहिए ! एक बुजुर्ग का कौल है कि जिस्म के हर अजू का रोजा होता है ! और कानों का रोजा यह है !
कि कान को बुरी और फजल बातों के सनने से बचाया जाए ! क्योंकि बुरी बातें सुनने का दिल पर बहुत गहरा असर होता है ! जिससे इंसानी ख्यालात में गुनाहों की तरफ रगबत पैदा होती है ।
रोजादार के लिए जरूरी है ! कि गीबत , झुठी बातें , लतीफे , फिल्मी स्टोरियाँ , फिल्मी गानें और फुहश बातें न सुने ! क्योंकि शरीअत में जिन बातों का कहना जाइज नहीं उनका सुनना भी जाइज़ नहीं है ।
नाते रसूल सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम और कुरआने मुकद्दस की तिलावत सुनें , सुनी मीलादे पाक में हाजिर होकर जिक्रे खुदा व रसूल सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम सुनें । इंशाअल्लाह ! दिल की दुनिया रोशन होगी और रोज़ा के रूहानी फायदे हासिल होगें ।
निगाहों की हिफाज़त-Mahe-Ramzan Roza Ki Niyat Or Nigaho Ki Hifajat
जैसा मजकूर हुआ कि असल रोजा जिस्म के हर अजू को गुनाहों से बचाना है , हालते रोज़ा में हमें अपनी निगाहों की भी हिफाज़त करनी लाजिम है । अपनी आंखों को गैर मरहम औरतों , टी . वी . , नाच गाना , फिल्म , उरियाँ तसवीरें देखने से बचाना होगा क्योंकि इन चीजों को देखने से दिल में गुनाह करने का ख्याल पैदा होता है
और वह हमारे रोज़ा की रूहानियत को मुर्दा कर देता है । लिहाजा मजकूराबाला चीजों से अपनी निगाहों की हिफाजत करें । अगर कुछ देखना चाहे तो कुरआने मुकद्दस को देखें , मुकामाते मुकद्दसा की जियारत करें ,
वालदैन को मुहब्बत भरी निगाह से देखें और पढ़ना चाहें तो कुरआने मुकद्दस और दीनी किताबें पढ़ें । इंशाअल्लाहु तआला बेशुमार दीनी वदुनियावी फवाइद हासिल होंगे ।
दिल की हिफाजत -Mahe Ramzan Roza Ki Niyat Or Dil Ki Hifajat
रोज़ा का तकाज़ा यह भी है कि हमारे दिल में हर तरह के गुनाह से बचने का जज्बा पैदा हो । इंसान जो भी गुनाह करता है पहले इसका तसव्युर उसके दिल में पैदा होता है और फिर वह उसे कर गुजरता है ।
अल्लाह के प्यारे हबीब सल – लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया , ” इंसान के बदन में गोश्त का एक ऐसा टुकड़ा है । कि अगर वह सही हो तो पूरा बदन सही रहेगा और अगर वह फ़ासिद हो जाए तो पूरा बदन फासिद हो जाएगा वह दिल है । लिहाजा हमें अपने दिल को गल्त ख्यालात और बुरे वसवसों से बचाना चाहिए ।
रोज़ा की नियत-Roza Ki Niyat
खाने पीने वगैरा से रूक जाना कभी – कभी आदतन , कभी भूख के न होने की बिना पर , कभी मर्ज की वजह से और कभी रियाज़त की बिना पर और कभी इबादत के तौर पर होता है , इसलिए जरूरी ठहरा कि रोजा रखते वक्त रोजा की नियत ( Roza Ki Niyat )कर ले ता कि खालिस इबादत मुतअय्यन हो जाए ।

नियत दिल के इरादा को कहते हैं , अगर किसी ने दिल से पक्का इरादा कर लिया कि मैं रोजा रख रहा हूं तो इतना काफी है लेकिन जबान से इन अलफाज़ का दोहरा लेना भी बेहतर है ।
मैंने यह इरादा किया कि रोजा रखू अल्लाह तआला के लिए इस रमजानुल मुबारक का ।